Saturday, July 10, 2021

अगर नहीं पता कि पहुंचना कहाँ है तो सब ठीक है

आप जहां जा रहे है उस दिशा में जाने वाली गाड़ी के इंतज़ार में है, गाड़ी आती है आप उसमें चढ़ जाते है,दो स्टेशन के बाद गाड़ी उल्टी चलने लगती है , आप हैरान होते है, किसी से कुछ पूछते नही और खुद पर ही शक करते है कि शायद आप ही गलत गाड़ी में चढ़ गए होंगे  । आप दो स्टेशन पीछे जाकर फिर से आपके जाने की दिशा वाली गाड़ी में बैठ जाते है और गाड़ी फिर से दो स्टेशन आगे जाके उल्टी  चलने लगती है। अबकी बार आप बगल वाले से पूछ लेते है कि 'ये गाड़ी उल्टी क्यों चल रही है' ? 
बगल वाला इंसान कहता है कि क्योंकि ये गाड़ी तो यहीं तक आती है इसकी डेस्टिनेशन तो यही है, आपको कहाँ जाना है? 

अरे हां! ऐसा भी होता है कि आपकी दिशा में जाने वाली हर गाड़ी, जहां तक आपको जाना है वहां तक तो नही जाएगी कुछ की डेस्टिनेशन बीच मे ही कहीं होती है। 

आप अपनी  कच्ची-पक्की समझ के भरम में इतना गुम होते है कि आपको ये यकीन होता है कि हर उस दिशा में जाने वाली गाड़ी वहीं तक जाएगी जहां तक आपको जाना है, और गाड़ी पर लिखा गंतव्य स्थान पढ़ने का  होश ही नही आता, एक बार नही, दो बार आप करते है ऐसा, और जाने कितनी बार ऐसा करने की संभावना रखते है। 

हालांकि आप ये बार- 2 का आना और जाना के घुमचक्कर पर घूम सकते है , ये भी एक अच्छी चीज है , अगर आपके पास  वक़्त है तो, बहुत बार वक़्त का होना अपने आप ही बोर्ड पर लिखे गंतव्य स्थान पर ध्यान नही जाने देता।  

और कई बार ऐसा लगना कि वक़्त नही है, अपने आप मे एक अलग तरह का भरम हो सकता है? 

पर वक़्त की बात छोड़ देते है और आपकी अपनी बात करे तो, 
जिनको पता होता है कि वो कहाँ जाना चाहते है (सही में पता होता है) वो एक ही बार में गलती सुधार लेते है और अगली बार देख कर गाड़ी में चढ़ते है, और जिन्हें पता नही होता कि असल मे उन्हें पहुंचना कहाँ है ( सही में नही पता होता) वो एक बार, दो बार, पता नही कितनी बार बीना गंतव्य स्थान पढ़े, सिर्फ उस दिशा में जाने जाने वाली गाड़ियों में बैठते रहेंगे और उल्टे लौटते रहेंगे , बशर्ते उनके पास वक़्त खूब हो। 

जीने के अंदाज़ सबके चाहे अलग -2 हुआ करे पर एक वक्त आता है जिसके हाथ मे एक लगाम होती है और वो लगाम खींच कर आपके ध्यान को बोर्ड पर लिखे गंतव्य स्थान को पढ़ने पर ले जाता है।

-Rachna


Sunday, May 16, 2021

शुरू से शुरू करते है ...

मुझे बचाना था किसी चीज को, शुरू से ही | मुझे ठीक  से तो नही पता वो 'शुरू' कहाँ से शुरू होता है पर हाँ जब भी मैं शुरुवात को याद करती हूं तो मुझे दो बड़े -2 पीपल के पेड़ वाला सरकारी स्कूल याद आता है,  जिसके मास्टर ने दाखिला देने का टेस्ट लेने के बाद ये कहा था कि 'इसे किसी इंग्लिश मीडियम स्कूल में डाल दो, यहाँ नही चलेगी, बच्ची बर्बाद हो जाएगी' । ये बात मुझे आज भी यूँ कि यूँ याद आ जाती हैं जरा जोर से गूँजते हुए कि "बच्ची बर्बाद हो जाएगी" , बस उसी वक़्त से मुझे बचाना था किसी चीज को ।  " बच्ची बर्बाद हो जाएगी" ये सुनकर मेरे पापा ने बड़े गुरुर से कहाँ था, मास्टर जी आप दाख़िला दो बच्ची कहीं से भी निकल जायेगी और जो बर्बाद होगी तो कहीं भी हो जाएगी। पापा का गुरुर कुछ भारी सा था , उनके कहने ने  तो नही पर हाँ उस गुरूर ने ठीक उसी वक़्त मुझे किसी चीज को बचाने की जंग में धकेल दिया, बचपन मेरा उसी वक़्त उस पीपल के पेड़ पर लटक गया अब मैं एक जंग का हिस्सा चुकी थी जिसे 'किसी चीज' को बचाना था, बच्ची को बर्बाद होने से बचना था । 

उस वक़्त मुझे ठीक से नही पता था कि बर्बाद होना क्या होता है और बचे रहना क्या होता है।  'किसी चीज' को बचाने से पहले ये तो समझ मे आये  कि बच के निकल जाना होता क्या है? 
बहुत बार ऐसा हो जाता था कि बचे हुए लोग मुझे बर्बाद से लगते थे और बर्बाद लोग कितने बच के निकले हुए लगते थे। मुझे मेरे बचने का मतलब खोजना था। क्योंकि मुझे बचाना ही था खुद को वरना पापा का वो भारी गुरुर मेरे सर पे गिरके मेरा दम निकाल देता। 

पता नही क्यों मुझे उस दिन जब पापा ने गुरुर से मास्टर जी को वो बात कही थी मुझे तब लगा था कि मेरा जन्म तो अभी-2 हुआ है और अब ये जिस चीज का जन्म हुआ है इसे ही बचाना है। उस दिन के बाद से पापा मुझे जन्म देने के बाद बस मुझे मारने के सब इंतजामो में ही लिप्त हो गए थे जैसे कि बस अब उनका काम मेरा इम्तिहान ही लेना बचा हो। मुझे जीने के वो सलीके चुनने थे कि 'मैं 'बची रहूं और  उन्होंने जीने के वो सलीके चुने कि मेरा 'मैं' बाकी ही ना रहे। 
to be continued.....