मुझे बचाना था किसी चीज को, शुरू से ही | मुझे ठीक से तो नही पता वो 'शुरू' कहाँ से शुरू होता है पर हाँ जब भी मैं शुरुवात को याद करती हूं तो मुझे दो बड़े -2 पीपल के पेड़ वाला सरकारी स्कूल याद आता है, जिसके मास्टर ने दाखिला देने का टेस्ट लेने के बाद ये कहा था कि 'इसे किसी इंग्लिश मीडियम स्कूल में डाल दो, यहाँ नही चलेगी, बच्ची बर्बाद हो जाएगी' । ये बात मुझे आज भी यूँ कि यूँ याद आ जाती हैं जरा जोर से गूँजते हुए कि "बच्ची बर्बाद हो जाएगी" , बस उसी वक़्त से मुझे बचाना था किसी चीज को । " बच्ची बर्बाद हो जाएगी" ये सुनकर मेरे पापा ने बड़े गुरुर से कहाँ था, मास्टर जी आप दाख़िला दो बच्ची कहीं से भी निकल जायेगी और जो बर्बाद होगी तो कहीं भी हो जाएगी। पापा का गुरुर कुछ भारी सा था , उनके कहने ने तो नही पर हाँ उस गुरूर ने ठीक उसी वक़्त मुझे किसी चीज को बचाने की जंग में धकेल दिया, बचपन मेरा उसी वक़्त उस पीपल के पेड़ पर लटक गया अब मैं एक जंग का हिस्सा चुकी थी जिसे 'किसी चीज' को बचाना था, बच्ची को बर्बाद होने से बचना था ।
उस वक़्त मुझे ठीक से नही पता था कि बर्बाद होना क्या होता है और बचे रहना क्या होता है। 'किसी चीज' को बचाने से पहले ये तो समझ मे आये कि बच के निकल जाना होता क्या है?
बहुत बार ऐसा हो जाता था कि बचे हुए लोग मुझे बर्बाद से लगते थे और बर्बाद लोग कितने बच के निकले हुए लगते थे। मुझे मेरे बचने का मतलब खोजना था। क्योंकि मुझे बचाना ही था खुद को वरना पापा का वो भारी गुरुर मेरे सर पे गिरके मेरा दम निकाल देता।
पता नही क्यों मुझे उस दिन जब पापा ने गुरुर से मास्टर जी को वो बात कही थी मुझे तब लगा था कि मेरा जन्म तो अभी-2 हुआ है और अब ये जिस चीज का जन्म हुआ है इसे ही बचाना है। उस दिन के बाद से पापा मुझे जन्म देने के बाद बस मुझे मारने के सब इंतजामो में ही लिप्त हो गए थे जैसे कि बस अब उनका काम मेरा इम्तिहान ही लेना बचा हो। मुझे जीने के वो सलीके चुनने थे कि 'मैं 'बची रहूं और उन्होंने जीने के वो सलीके चुने कि मेरा 'मैं' बाकी ही ना रहे।
to be continued.....