मेरे साथ होते-2 अकसर दो ही बाते रह जाया करती है, या तो कहानी कह दो या तो कहानी सुन लो| इन दो बातो के अलावा जो तीसरी बात हो सकती थी वो थी "या तो कहानी बुन लो"|
मै हमेशा से ही थोड़े आलसी रवैये में रही हूँ तो कहानी बुन ने वाला रास्ता तो पकड़ नहीं सकी| बुन ने में बड़ी मेहनत लगती है इसलिए मैंने कहानियों में बने रहने के लिए एक बड़ा ही आसान रास्ता चुना, प्रार्थना का रास्ता!
मंदिर में जाकर एक भगवान की कहानी में गिरकर, पैरो की तरफ सर को झुका कर हाथ फैलाकर, मैंने कहा -
"क्या ऐसा नहीं हो सकता कहानियाँ मुझे चुन ले! "ऐसा कीजिये मुझे यही वर दीजिये कि कहानियाँ मुझे चुनती रहे और अपने हाथो से मेरे वजूद की किस्म को बुनती रहे|
कुछ होता है आपके अन्दर जो आपको बताता है कि आप किस मिजाज के इंसान हो, किन-2 जंजीरों से पकडे हुए हो, किन-2 हादसों में जकड़े हुए हो| मुझे बस लगता था कि मुझ में कहानियों के लिए एक पुकार है, इसलिए मैंने मांगी तो बस कहानी (यां)|
हालाँकि मैंने जब -2 खुद कहानी को लिखना चाहा तो उसने मुझे इस तरह से अस्त- व्यस्त किया कि मैंने तौबा कर डाली... मुझसे नहीं लिखी जायेगी कोई भी कहानी| मुझे कहानी को लिख देने का गुरुर कभी नहीं था बल्कि मुझ में हमेशा उत्सुकता रही ये जानने कि ये कहानी मुझे कैसा लिखेगी, कैसे लिखेगी?
बहुत बार कहानी ने मुझे अचम्भित किया, उसने मुझे ऐसे लिखा कि मै अपने ही किरदार के चढ़ाव के उतार में उलझ कर खुद को पहचान ना सकी! कहानी(यों) ने मुझे अगल -2 तरीको में गढ़ा है और फिर उस गठन को पढने में मैंने खुद को मशगूल किया है|
बस इसी तरह कहानी(यों) के साथ उलझ-2 कर जिन्दगी की दो -चार शामे गुजर जाए, धीरे -2 जिन्दगी अपने अंतिम पड़ाव पर आ जाए और कोई एक कहानी मेरा अंत लिख दे और मुझे चैन की सांस आ जाए...
...तब तक के लिए चलो किसी कहानी से कहा जाए कि सुनो! क्यूँ ना हम में तुम को लिखा जाए|
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