Saturday, March 31, 2012

कहाँ हम ख्वाब रखेंगे

कहाँ रखेंगे नजाकत कहाँ हम नाज रखेंगे 
मेरे घर  में नही आले,कहाँ हम ख्वाब रखेंगे
मेरे अंदर का मंजर है कहाँ है शोख,बंजर है
यहाँ सब शुष्क है प्याले तो कैसे प्यास रखेंगे 
कोई आँखों से दिल में झांक ले,होगा ये उसका हुनर 
हमारी जिद तो ऐसी है ,खुद को बे आवाज़ रखेंगे
चंद रौशनी के वास्ते खुद को जला देंगे 
मिट जायेंगे पर जीने का यही अंदाज़ रखेंगे  
मेरी बातो पे तुम जो जाओगे,अक्सर ही धोखा खाओगे 
हम दिल में दर्द और होठ पे मुस्कान रखेंगे  
                                                                     - रचना 

Saturday, January 7, 2012

बेकार की बात

कौनसे चैन -ओ -करार की बात करते हो
छोडो ! ना! क्यों बेकार की बात करते हो 
अब तक की उमर तो झिड़कियो  में गुजार दी 
जाने तुम कौनसे दुलार की बात करते हो 
हम लाखो गमो में भी मुस्करा के जिन्दा है 
तुम तो रोते हुए कुछ हज़ार की बात करते हो 
ये थोडा परायापन दुनिया से ठीक ही है मेरा 
नाहक ही तुम इसमें सुधार की बात करते हो
यकी नही करते बदलाव छलावा है वक़्त का 
ओह ! फिर से तुम किसी आसार  की बात करते हो  
जो रोक लेती  है तुम्हे गहरी खाइयो में गिरने से 
शुक्र है ! कभी -कभी तुम ऐसी दिवार की बात करते हो  
हमारे ख्वाबो के महल तो है खंड -खंड हुए 
तुम घबराए से क्यों हल्की दरार की बात करते हो 
एक आवाज़ थी और हम खड़े है अभी तक 
हाय! तुम क्यों किसी पुकार की बात करते हो 
लगता है पूरी उमर किसी नशे में गुजार दे 
जब जब भी तुम किसी खुमार की बात करते हो 
जिसमे डूब कर पाते  है हम खुद ही को 
क्या तुम भी ऐसे ही प्यार की बात करते हो ??
                                                                    - रचना 




Friday, January 6, 2012

कमबख्त कविता

निर्दोष  भावना !!!
दिल में उभरती है और जेहन से होते हुए
शब्दों का आवरण ओढ़ बाहर आती है 
और बन जाती है 
कमबख्त कविता !!!
कविता जो ना छुपाते बनती है 
ना सुनाते बनती है 
कविता कहती है मुझे पन्नो पे उतारो और 
लोगो के सामने पेश करो 
और मै चिल्लाती हु कि जरुरत ही क्या है ऐसी!!
कविता कहती है मै इतना लम्बा सफ़र  तय करके आई हु 
अब तो मेरा प्रदर्शन  होना ही होगा
मै ठगी सी कहती हू 
पर ये मेरे मरने जैसा होगा  
तो कविता हँस कर कहती है 
और कविता है ही क्या
तेरे वजूद के टूटे टुकडो के सिवा !
तेरे टूटे हुए टुकड़े ,मरे हुए हिस्से ही तो बिखरे है पन्नो पर 
कविता का पन्नो पे बिखर जाना 
मेरे लए जैसे अपने किसी हिस्से के खो जाने जैसा है 
फिर भी मै  खोती हु जाने क्यों ??   

अब तो मै कविता लिखती  रहती हू और 
थोड़ा-थोड़ा  कविता दर कविता 
बिखरती रहती हू ,मरती रहती हू
जब भी मै खुद को इन पन्नो पे बिखरा देखती हू
तो शर्मिंदा सी सोचती हू
आखिर मै कविता   क्यों लिखती हू!
                                                               - रचना